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स्वामी प्रसाद मौर्य ने राष्ट्रपति और पीएम को भेजा पत्र

रामचरित मानस के चैपाईयों पर प्रतिबंध के लिए भेजा पत्र

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स्वामी प्रसाद मौर्य ने राष्ट्रपति और पीएम को भेजा पत्र
रामचरित मानस के चैपाईयों पर प्रतिबंध के लिए भेजा पत्र
लखनऊः सपा के राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद पूर्व कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मंत्री ने रामचरित मानस में उल्लेखित चैपाईयों पर फिर आपत्ति जताया है और अब राष्ट्रपति एवं पीएम को लिखित ज्ञापन भेजकर रामचरित मानस के कुछ चैपाईयों को प्रतिबंधित करने या फिर संशोधित करने की मांग किया है। स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस के कुछ चैपइयों को पूरी तरह से आपत्तिजनक और महिला, आदिवासी, दलित व पिछड़ा वर्ग के लिए अपमानजनक बताया है। स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसके लिए देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पत्र भेजकर निम्न अनुरोध किया है।
स्वामीप्रसाद मौर्य द्वारा प्रेषित पत्र
सेवा में,
मा. प्रधानमंत्री जी,
भारत सरकार, नई दिल्ली।
विषयः रामचरितमानस की आपत्तिजनक चैपाइयों को संशोधित अथवा प्रतिबंधित करने के संबंध में।
महोदय,
आपके संज्ञान में लाना है कि 16 वीं सदी के मध्य में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरित मानस‘ उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय है। मध्यकालीन सामंती राजसत्ता के दौर में रचे गए अवधी महाकाव्य रामचरित मानस के कतिपय प्रसंगों में वर्णवादी सोच निहित है। इसकी अनेक चैपाइयों में भेदभावपरक वर्ण व्यवस्था को उचित ठहराया गया है। कुछ चैपाईयों में वर्ग विशेष की श्रेष्ठता स्थापित की गई है और शूद्रों को नीच और अधम बताया गया है। कतिपय चैपाइयों में स्त्रियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः यह संदर्भ तुलसीदास की मध्यकालीन सोच का परिचायक है।
महोदय, 90 साल के लंबे संघर्ष के बाद भारत को राजनीतिक आजादी प्राप्त हुई। नए भारत के निर्माण के लिए प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने गहन अध्ययन और कठिन परिश्रम से ऐसे संविधान की रचना की, जिसमें स्वाधीनता आंदोलन से उपजे विचार और समूचे भारतवासियों के सपने समाहित हैं। संविधान सभा में संपन्न संवाद और मंथन से भारत का संविधान समृद्ध हुआ। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ। संविधान ने देश में समता, न्याय और बंधुत्व को सैद्धांतिक रूप से स्थापित किया। बाबासाहेब आंबेडकर ने इस बात को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया था कि समता और न्याय को व्यावहारिक धरातल पर स्थापित करना हमारा अभीष्ट है। इसलिए सविंधान के अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति लिंग या जन्म के स्थान के नाम पर भेदभाव न करने का उल्लेख किया गया है।
संविधान सभा के अंतिम दिन 26 नवंबर 1949 को बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने भविष्य की चुनौतियों को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ‘‘26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट का समान मूल्य के सिद्धांत पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमारे सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभासी जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीतिक प्रजातंत्र को संकट में डाल रहे होंगे। हमें जितनी जल्दी हो सके इस विरोधाभास को समाप्त करना होगा, अन्यथा जो लोग इस असमानता से पीड़ित हैं, वे उस राजनीतिक प्रजातंत्र को उखाड़ फेंकेंगे, जिसे इस सभा ने इतने परिश्रम से खड़ा किया है।‘
महोदय, बाबा साहब ने अपने इसी भाषण में यह भी कहा था कि ,‘‘इस देश में राजनीतिक सत्ता पर कुछ लोगों का एकाधिकार रहा है और बहुजन न केवल बोझ उठाने वाले बल्कि शिकार किए जाने वाले जानवरों के समान हैं। इस एकाधिकार ने न केवल उनसे विकास के अवसर छीन लिए हैं बल्कि उन्हें जीवन के किसी भी अर्थ या रस से वंचित कर दिया है। ये पददलित वर्ग शासित रहते-रहते अब थक गए हैं। अब वे स्वयं शासन करने के लिए बेचैन हैं। इन कुचले हुए वर्गों में आत्म- साक्षात्कार की इस ललक को वर्ग-संघर्ष या वर्ग-युद्ध का रूप ले लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। यह हमारे घर को विभाजित कर देगा। वह एक अनर्थकारी दिन होगा। क्योंकि जैसा अब्राहम लिंकन ने बहुत अच्छे ढंग से कहा है,‘अंदर से विभाजित एक घर ज्यादा दिनों तक खड़ा नहीं रह सकता।‘ इसलिए उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जितनी जल्दी उपयुक्त स्थितियां बना दी जाएं, अल्पसंख्यक शासक वर्ग के लिए, देश के लिए, उसकी स्वतंत्रता और प्रजातांत्रिक ढांचे को बनाए रखने के लिए उतना ही अच्छा होगा। जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और बंधुत्व स्थापित करके ही ऐसा किया जा सकता है। इसीलिए मैंने इन पर इतना जोर दिया है।‘‘
महोदय, रामचरित मानस रामकथा पर आधारित एक साहित्यिक रचना है। ठीक उसी तरह जैसे कृष्णकथा पर आधारित सूरदास का सूरसागर और रतनसेन-पद्मावती की प्रेमकथा पर आधारित मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत है। हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में इस तरह की दर्जनों रचनाएं हैं। रामकथा पर आधारित वाल्मीकि, भवभूति, कंबन और निराला आदि ने विभिन्न भाषाओं में साहित्यिक रचनाएं लिखी हैं। सुप्रसिद्ध लेखक ए. के. रामानुजम के अनुसार भारत में तीन सौ रामायण हैं। लेकिन कथावाचकों और प्रवचनकर्ताओं ने रामचरित मानस को धार्मिक ग्रंथ बना दिया है। ऐसे में प्रश्न यह है कि किसी अन्य रामायण के स्थान पर आखिर रामचरित मानस को ही धार्मिक महत्ता क्यों प्रदान की गई? क्या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वंचित समाज को नीच-अधम घोषित करना इसका कारण है? क्या समूचे स्त्री समाज और कमजोर वंचित जातियों को गाली देना धर्म हो सकता है? क्या इस देश का संविधान ऐसा करने की अनुमति देता है? देश संविधान से चलेगा या मध्यकालीन मानस से? इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती कि हमारा संविधान भारत की सर्वोपरि किताब है। कोई धार्मिक किताब भी संविधान से ऊपर नहीं हो सकती। हमारा संविधान वंचित और कमजोर समुदायों के अधिकारों का संरक्षण करता है। वर्णवादी मानसिकता के स्वघोषित श्रेष्ठ वर्चस्वशाली लोग वंचित कमजोर तबकों को गाली देकर संविधान की अवहेलना ही नहीं करते बल्कि एक सच्चे धर्म का भी अपमान करते हैं। ऐसे ढोंगी और पाखंडी सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा हैं। इनके वचनों से समाज में कटुता और विद्वेष पैदा होता है।
महोदय,
अनेक कथावाचक और धार्मिक पाखंडी प्रतिदिन रामचरित मानस की ऐसी चैपाईयों को उद्धृत करके उन्हें ईश्वरसम्मत ठहराते हैं, जिससे इस देश के करोड़ों लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। देश के 97 फीसदी लोगों को नीच, अधम, मूर्ख और पीटने योग्य कहा जाता है। उत्तरकांड की यह चैपाई द्रष्टव्य है-
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा-स्वपच किरात कोल कलवारा।।
घोर निंदनीय है कि इस चैपाई में तेली, कोल, किरात, कलवार आदि गरीब पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को अधम और नीच कहा गया है। इसी तरह सुंदरकांड की यह चैपाई बेहद अपमानजनक है-
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी-सकल ताड़ना के अधिकारी।।
सुना है कि गीता प्रेस गोरखपुर ने ताड़ना शब्द के अर्थ में परिवर्तन किया है। पीटने के स्थान पर ताड़ना का अर्थ शिक्षा कर दिया गया है। लेकिन अब प्रश्न उठता है कि गीता प्रेस पशु और ढोल को कौन सी शिक्षा देना चाहती है? इस तरह का अर्थांतर हास्यास्पद ही नहीं मूर्खतापूर्ण भी है। जब प्राचीन धर्मग्रंथों और सामंती हिंदू वर्णव्यवस्था में दलित, शूद्र और स्त्रियों को शिक्षा की मनाही थी तब तुलसीदास उनको शिक्षा देने की बात कैसे कह सकते हैं? जबकि एक सच्चाई यह भी है कि तुलसीदास ने उत्तरकांड की एक चैपाई में निम्न जाति में विद्या प्राप्त करने वाले को सर्प के समान बताया गया है-
अधम जाति में विद्या पाए-भयहु जथा अहि दूध पियाए।।
क्या एक ही रचना में समान शब्द के अर्थ अलग अलग हो सकते हैं? कुछ पाखंडी विशिष्ट संदर्भ का हवाला देकर तुलसीदास की मानसिकता का बचाव कर सकते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि ताड़ने का अर्थ पीटना या प्रताड़ित करना ही होता है। जैसे अरण्यकांड की यह चैपाई है-
सापत ताड़त परुस कहंता-बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।
रामचरित मानस की अनेक चैपाईयों में स्त्रियों का अपमान किया गया है। अयोध्याकांड की निम्न चैपाई में स्त्रियों को अवगुण की खान यानी मूर्ख कहा गया है-
बिधिहूँ न नारि हृदय गति जानी-सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
लंकाकांड की एक चैपाई में इसे दोहराकर अवगुणों की संख्या और उनकी प्रवृति भी बताई गई है-
नारि सुभाउ सत्य सब कहहिं-अवगुन आठ सदा उर रहहिं।।
उत्तरकांड की एक चैपाई में स्त्री की पराधीनता को पुष्ट किया गया है। स्वतंत्र स्त्री को लांछित करते हुए तुलसीदास ने लिखा है-
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं-जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी।।
ध्यातव्य है कि रामचरित मानस में एक तरफ दलित, आदिवासी, पिछड़ों और स्त्रियों को गाली दी गई हैं। उनका अपमान किया गया है। जबकि दूसरी तरफ ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्थापित की गई है। अज्ञानी और दुष्चरित्र ब्राह्मण भी पूजनीय है। जबकि ज्ञानवान शूद्र को भी आदर योग्य नहीं माना गया है।
अरण्यकांड की यह अर्द्धाली द्रष्टव्य हैः पूजिअ बिप्र सील गुन हीना- सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
श्रीमान जी उपरोक्त चैपाईयाँ महज कुछ उदाहरण हैं। रामचरित मानस में सौ से अधिक बार कमजोर वंचित जातियों को अधम और नीच कहा गया है।
मान्यवर आपने भी वर्ष- 2014 में लोकसभा चुनाव में ‘नीच’ होने का, अपमान का जिक्र सार्वजनिक सभाओं में करते हुए कहा था कि चूॅकि मैं पिछड़ी जाति में पैदा हुआ हूं इसलिए पार्टी विशेष के लोग मुझे नीच कहते हैं जबकि आप अनेकों बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे एवं तत्समय प्रधानमंत्री के दावेदार थे। जब यह व्यवहार आप जैसे शीर्षस्थ नेताओं के साथ हो सकता है तो प्रतिदिन, प्रतिक्षण तुलसीदास रामचरितमानस की चैपाईयों के कुछ उल्लिखित अंश से देश की समस्त महिलाओं एवं तथाकथित शुद्र वर्ण में आने वाले आदिवासियों, दलितों व पिछड़ों कीे सामाजिक अपमान की त्रासदी का दंश नित्यप्रति झेलना पड़ता है।
भारत का संविधान धर्म की स्वतंत्रता और उसके प्रचार प्रसार की अनुमति देता है। धर्म मानव कल्याण के लिए है। ईश्वर के नाम पर झूठ, पाखंड और अंधविश्वास फैलाना धर्म नहीं हो सकता। क्या कोई धर्म अपने अनुयायियों को अपमानित कर सकता है? क्या धर्म बैर करना सिखाता है? मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ। लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जा रही घृणा और वर्णवादी मानसिकता का विरोध करता हूँ। इसलिए हमारी यह भी माँग यह है कि पाखंड और अंधविश्वास फैलाने वाले, गालियाँ बकने वाले और हिंसा प्रेरित प्रवचन करने वाले कथावाचकों के सार्वजनिक आयोजनों पर प्रतिबंध लगाया जाए और उन पर विधि सम्मत कार्यवाही की जाए।
इतना ही नहीं कतिपय कथावाचकों और स्वघोषित वर्चस्वशाली ब्राह्मणों द्वारा समूचे उत्तर भारत में धर्म के नाम पर लाउड स्पीकर लगाकर रामचरित मानस का पाठ किया जाता है। इससे करोड़ों दलित, पिछड़े, आदिवासी और स्त्रियाँ ऐसी गालियाँ सुनने के लिए अभिशप्त हैं। क्या ऐसी चैपाईयों को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए? महोदय, हमारी माँग है कि देश की 97ः आबादी वाले बहुसंख्यक समाज यथा महिलाओं, आदिवासियों, दलितों व पिछड़ों की भावनाओं का सम्मान करते हुए रामचरित मानस के आपत्तिजनक अंशों को हटाया जाए अथवा इनमें संशोधन किया जाए।
सादर धन्यवाद।
(स्वामी प्रसाद मौर्या)
राष्ट्रीय महासचिव, समाजवादी पार्टी,
पूर्व कैबिनेट मंत्री एवं सदस्य विधान परिषद, उत्तर प्रदेश।

 

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