रेलवे ने भारतेंदु सभागार में मनाई साहित्यकार सूर्यकांत निराला जी की जयंती
रेल अधिकारियों ने किया निराला जी का काव्यपाठ
वाराणसीः पूर्वोत्तर रेलवे के वाराणसी रेल मंडल के रेल प्रबंधक रामाश्रय पाण्डेय के निर्देशन में मंडल राजभाषा विभाग, वाराणसी के तत्वावधान में मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय के भारतेंदु सभागार कक्ष में हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी की जयंती धूमधाम से मनाई गई। कार्यक्रम का शुभारम्भ मंडल कार्मिक अधिकारी, राजभाषा अधिकारी एवं अन्य रेलकर्मिकों ने निराला जी के चित्र पर माल्यार्पण एवं पुष्पांजलि देकर किया।
इस अवसर पर मंडल कार्मिक अधिकारी विवेक मिश्रा ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (21 फरवरी 1896-15 अक्टूबर 1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रमाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियों, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेष रूप से कविता के कारण ही है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का जन्म बंगाल की महिपाल रियासत (जिला मेदिनीपुर में माघ शुक्ल 11, संवत् 1955 यानि 21 फरवरी 1896 में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 में प्रारंभ हुई। उनका जन्म मंगलवार को हुआ था। जन्म कुण्डली बनाने वाले पंडित के कहने से उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिपादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे।निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और वाङ्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान- अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। 1918 में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में निराला ने अपनी पत्नी और बेटी सहित अपने परिवार के आधे लोगों को खो दिया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिपादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक संघर्ष में बीता।निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजभाषा अधिकारी श्री प्रदीप कुमार सिंह ने निराला जी की कविता सरोज स्मृति की पंक्तियाँ सुनाईः
धन्ये, मैं पिता निरर्थक, कुछ भी तेरे हित न कर सका- जाना तो अर्थोगमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर, हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
इस अवसर पर मुख्य हित निरीक्षक राहुल भट्ट, कार्यालय अधीक्षक श्रीमती अनीता पाण्डेय, अविनाश मिश्रा, श्रीमती रीना सिंह, श्रीमती पूनम त्रिपाठी, श्रीमती ममता यादव, अजय कुमार सिंह, श्रीमती आरती वर्मा, उपेन्द्र तिवारी, सुरेन्द्र यादव एवं हिमांशु राव, पीआरओ अशोक कुमार सहित उपस्थित कर्मचारियों ने निराला जी की विभिन्न रचनाओं का पाठ किया।
श्रीमती अनीता पाण्डेय ने निराला जी कविता भिक्षुक एवं श्रीमती पूनम त्रिपाठी ने कविता वह तोड़ती पत्थर, अजय कुमार सिंह ने कविता गर्म पकौड़ी एवं हमारे कालेज का बबुआ एवं श्रीमती रीना ने कविता कुकुरमुत्ता का पाठ किया। धन्यवाद ज्ञापन राजभाषा सहायक श्रीमती पूनम त्रिपाठी ने किया।